बुधवार, 9 नवंबर 2011

मीत हम उन्ही को फिर से बुलाते रे.

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सुमन की इन प्यारी बातों का कहना क्या
बात ही बात हम सबको ले चली कहाँ
जिधर चली वो तो मुहं में पानी आना था
फिर हम करते भी क्या..
जो उसने खिलाया बस खाते ही चले गए
ये कैसी है रचना बनाते ही चले गए
प्यारे-से जीवन की प्यारि-सी सुमन
तुम जो चाहो कर ही लेती हो
जब चाहो बना ही लेती हो
मुहं में आये पानी का अपना
अब आये तुम्हे प्यार का सपना
खिलाकर तो देखो मालिक को ये अपना
सारे जहां में ऐसा ना हो सपना
कभी कुछ भी करना ध्यान तुम रखना
प्रभु प्रेम का मीठा उसमें तुम लगाना
परिवार में प्रदीप हमेशा जगाना
प्रेम की गंगा बस यूँ ही बहाना
सुमन के मीत जल्दी तुम बुलाना
मुहं का पानी बस तुम ही मिटाना 
अंत में हम भी करें आना -जाना
हम किसको अपना बनाएं 
रिश्तों के बाजार में
'नाम' रिश्ते के वस्त्र है पहना दो इन्हें कुछ भी
हमें तो केवल चाहिए रिश्ता प्रभु प्रेम का
बस आप यूँ ही अपना बनाते चलना
सर्जन के इस स्वरूप को
बनाते यूँ ही चलना....
सुमन की इस 'लौ' को
बढाते हूँ ही चलना..
*
सुमन__तुम्हारे प्रस्तुतीकरण की सराहना 

हमने भी कुछ इस प्रकार प्रकट की है |
'रिश्ते के वस्त्र' तुम्हे पहनाने है |
.
( सुमान सन्देश पढ़कर बोली आपने बहुत अच्छी कविता बनाई,

मैं आपकी आभारी हूँ )
आभारी शब्द ने मुझे झकझोरा..और निकल पड़ी तरंग प्रेम की..

देखे आप भी इस भाव व्यथा को..
 *
अरे बावली तू क्या आभारी रे
तू
तो प्रिय की प्यारी रे
जो
जिसकी प्यारी होती
वो
कैसे आभारी होती
वीणा
के तार छेड़े तुमने
ध्वनी
प्यार की निकलेगी
तुम
चाहो तो रोको उसको
नहीं
तो प्रीत चलाना रे
उस
प्रभु की वीणा रे पगली
जिसने
हमें जगाया रे
ऐसी
प्रीत सभी कर ले तो 
मीत
अन्धेरा भागा रे
प्रेम
प्यार जो ना समझे
वो
प्रभु प्यार क्या समझा रे
प्रेम
का दीप जलाकर देखो
घर
में सबके उज्जियाला रे
दूजों
के जो भय से छोड़े
वो
कैसा अभागा रे   
जो
मूल स्वरूप को ना समझे
वो
तो गोते खायेगा
आओ
सब मिल दूर करें..
इस
द्रष्टि के अंधियारे को
बजने
दो अब उसकी बंशी..
प्रीत
के मीत बुलाते है
जिस
घर (ह्रदय) में वो आते
गीत
प्रेम के गाते है
मीत
के मीत वो बनाते
पवित्र
प्रेम वो समझाते
ह्रदय
में वो रम जाते है
आओ
मीत हम उन्ही को फिर से बुलाते रे..
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