शनिवार, 17 दिसंबर 2011

नारी उपवन की मीत मेरी..

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नारी उपवन की मीत मेरी, सुन्दर संसार बसाती हो !
कभी तुम मेरी माँ बन अपने आँचल में छुपाती हो !
कभी तुम बहन बन ऊँगली पकड चलना सीखाती हो !
कभी तुम पत्नी बन उपवन के पुष्प घर ले आती हो !
कभी तुम मित्र प्रेमी बन सुन्दर माला बन जाती हो !
कभी छोटी बेटी बन प्यारेपन के पुष्प खिलाती हो !
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शनिवार, 26 नवंबर 2011

प्यार के व्यवहार को देखा..


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प्यार
को देखा हमने हमारे पवित्रता के द्वार से
प्यार
को देखा हमने हमारे वासना के मार्ग से
प्यार
के व्यवहार को देखा.. मित्रता के तार से
प्यार
के व्यवहार को देखा.. शब्द रिश्तेदार से
प्यार
के व्यवहार को देखा अस्त्र तलवार से
प्यार
के व्यवहार को देखा पैसे के व्यभिचार से
प्यार
के व्यवहार को देखा रूप सौन्दर्य जाल से
प्यार
के व्यवहार को देखा अपनत्व  संसार से
प्यार
के व्यवहार को देखा स्वार्थ के जंजाल से
प्यार
के व्यवहार को देखा देवत्व के उपहार से
प्यार
के व्यवहार को देखा प्रकृति के प्रकार से
प्यार
के व्यवहार को देखा रंगों के शिष्टाचार से
प्रिय
तुम्हे भी देखा हमने  प्यार के व्यवहार से  
प्यार
के व्यवहार को देखा  सौर्य बलिदान से
प्यार
के व्यवहार को देखा  ईश्वर इन्शान से
प्यार
के व्यवहार को देखा  स्व  आत्मज्ञान से
प्यार
के व्यवहार को देखा माँ-बाप के ध्यान से
प्यार
के व्यवहार को देखा संसार हिन्दुस्थान से
प्यार
के व्यवहार को देखा आग बात्ती मिलान से
प्यार
के व्यवहार को देखा देह आत्म के योग से
यही प्यार हमें मिला देगा कभी सीधे भगवान से 
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सोमवार, 21 नवंबर 2011

'स्पर्श' से दो दीप जलाकर देखें

प्रिय तेरे 'स्पर्श' से दो दीप जलाकर देखें
प्रेम की ज्योत को और बढ़ाकर देखें.. 
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स्पर्श जिसको भी किया
मिला उसको भी..


जो पाया मुझे
दिया उसको भी..


बेईमानदारी के किनारे दूर ही है
जो भी करते है साथ के साथ..


स्पर्श किया जो भी
वह साथ हमारे होते है..


चेतना बिना स्पर्श कहाँ होते है
वो ना होती तो हम यहाँ ना साथ होते..


तुमने किया स्पर्श ऐसा
हम तुम साथ होते है..


स्पर्श छुट ना पायेगा
क्यूँ इससे अस्वीकारती हो..


अब तो मानो प्रिय
ये स्पर्श है प्रेम का..


मिलता नहीं दुबारा
मालिक का दिया मिलता है..


अब तो मानो इस स्पर्श को
जो छुट ना पाये तुम से..


प्रेम का प्रसाद तुम्हे
फिर से मिल ना पायेगा..


जब प्रेम प्यार को पा लिया
वह ही उसकी आरती है..


ये लोकल ट्रेन के सफ़र
केवल अनुभवों की रचना है..


प्रेम की राह हमें देती है जीवन
जीवन में होता आनंद ही आनंद..

 
वो देगा हमें स्पर्श करने को
तुम नहीं तो और सही और नहो तो और सही..


यु तो खुश रह तेरे मिजाजों में बावली
जब सायं तेरी ढलेगी तो प्रकाश छुट जाएगा..


तब स्पर्श ना तुझे ढंग से आयेगा
तेरे मर्ज से
तू घिरी रह जायेगी..


कब आँख लगेगी तेरी
धरती पर तू सो जाएगी..


फिर कौन से जन्म में आएगी
स्पर्श का अहसास समझ ना पाएगी..


कटी पतगं के सहारे
तू कब तक चलते जायेगी..


इतनी दूर क्यूँ जाती है
फिर पास बुलाएगी..


अभी तो तेरे पास ही हूँ
फिर तू मिल ना पाएगी..


आजा बुलाता हूँ अब भी
नहीं तो सायं ढल जायेगी..


मेरे बिना जीवन अधूरा पाएगी
समाज की ये रश्में निभा ना तू पाएगी..


ये स्पर्श तू मेरा
छिपा न कभी पाएगी..


रोकता फिर भी नहीं
समाज की रश्मों से..


प्रेम तो प्रिय आत्मिक बंधन है
पवित्रता के आगे दिखता ना दिखाता है..


समाज जीवन रचना
बस यों ही चलती रहेगी..


दो पल प्रेम के तू भी संजोले
पहल तू कर अब..फोन उठा ले..


रश्म रिवाज जमाने के
आजमा कर देख ले..


स्पर्श के अहसास को भूल ना पाए
दो दीप मिलन के प्रज्लन को देख ले..


दिलों के प्रेम को रोक कर भी देख ले
प्रेम युद्ध की सीमाए छोड़कर भी देख ले..


मालिक के दिए स्पर्श को छोड़कर देख ले
फिर भी समझ में ना आये तो अपनाकर देखले..
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स्पर्श से पैदा यह स्नेही - यशवंत

बुधवार, 9 नवंबर 2011

मीत हम उन्ही को फिर से बुलाते रे.

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सुमन की इन प्यारी बातों का कहना क्या
बात ही बात हम सबको ले चली कहाँ
जिधर चली वो तो मुहं में पानी आना था
फिर हम करते भी क्या..
जो उसने खिलाया बस खाते ही चले गए
ये कैसी है रचना बनाते ही चले गए
प्यारे-से जीवन की प्यारि-सी सुमन
तुम जो चाहो कर ही लेती हो
जब चाहो बना ही लेती हो
मुहं में आये पानी का अपना
अब आये तुम्हे प्यार का सपना
खिलाकर तो देखो मालिक को ये अपना
सारे जहां में ऐसा ना हो सपना
कभी कुछ भी करना ध्यान तुम रखना
प्रभु प्रेम का मीठा उसमें तुम लगाना
परिवार में प्रदीप हमेशा जगाना
प्रेम की गंगा बस यूँ ही बहाना
सुमन के मीत जल्दी तुम बुलाना
मुहं का पानी बस तुम ही मिटाना 
अंत में हम भी करें आना -जाना
हम किसको अपना बनाएं 
रिश्तों के बाजार में
'नाम' रिश्ते के वस्त्र है पहना दो इन्हें कुछ भी
हमें तो केवल चाहिए रिश्ता प्रभु प्रेम का
बस आप यूँ ही अपना बनाते चलना
सर्जन के इस स्वरूप को
बनाते यूँ ही चलना....
सुमन की इस 'लौ' को
बढाते हूँ ही चलना..
*
सुमन__तुम्हारे प्रस्तुतीकरण की सराहना 

हमने भी कुछ इस प्रकार प्रकट की है |
'रिश्ते के वस्त्र' तुम्हे पहनाने है |
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( सुमान सन्देश पढ़कर बोली आपने बहुत अच्छी कविता बनाई,

मैं आपकी आभारी हूँ )
आभारी शब्द ने मुझे झकझोरा..और निकल पड़ी तरंग प्रेम की..

देखे आप भी इस भाव व्यथा को..
 *
अरे बावली तू क्या आभारी रे
तू
तो प्रिय की प्यारी रे
जो
जिसकी प्यारी होती
वो
कैसे आभारी होती
वीणा
के तार छेड़े तुमने
ध्वनी
प्यार की निकलेगी
तुम
चाहो तो रोको उसको
नहीं
तो प्रीत चलाना रे
उस
प्रभु की वीणा रे पगली
जिसने
हमें जगाया रे
ऐसी
प्रीत सभी कर ले तो 
मीत
अन्धेरा भागा रे
प्रेम
प्यार जो ना समझे
वो
प्रभु प्यार क्या समझा रे
प्रेम
का दीप जलाकर देखो
घर
में सबके उज्जियाला रे
दूजों
के जो भय से छोड़े
वो
कैसा अभागा रे   
जो
मूल स्वरूप को ना समझे
वो
तो गोते खायेगा
आओ
सब मिल दूर करें..
इस
द्रष्टि के अंधियारे को
बजने
दो अब उसकी बंशी..
प्रीत
के मीत बुलाते है
जिस
घर (ह्रदय) में वो आते
गीत
प्रेम के गाते है
मीत
के मीत वो बनाते
पवित्र
प्रेम वो समझाते
ह्रदय
में वो रम जाते है
आओ
मीत हम उन्ही को फिर से बुलाते रे..
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यहाँ कौन किसका सब झुंट,. है तो मुरलीधर उसका


*

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हाँ__स्वयं के साथ 'अपनों के लिए' जीवन जीना  है
केवल अपनों के लिए जीता है.. वह खुद खो जाता है
यहाँ कौन किसका सब झुंट,. है तो मुरलीधर उसका
जिसको जीना खुद को हो तो.. वे राह देखते ना ही
बस मरना जिसने सीख लिया.. डर काहे का ना ही
लाशों को कब तक ढोवोगे.. जीना उनको है नहीं
वस्त्रों के आवरण से कब तक क्या छिपाओगे
देखता है वो सब.. जिसको तुम छिपाते हो
क्या है तुम्हारा.. नगापन तो द्रष्टि का
शरीर आँचल में देखो.. मिल जाएगा वो तुम्हारा
फिर जीवन जी लेना अपनों के साथ..
उस वक्त होगें वो अपनों के साथ
तो कुछ नहीं होगा छोटों के साथ
न्याय प्रियता और स्नहे मिलन
जब देगें सबको सुखद संसार
अब तो समझे प्रिय गणेश जी..  


सोमवार, 7 नवंबर 2011

जी-मेल हमारा वो घर अब तुम्हारा !

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 प्रियवर..
तुम को ना जाने कितना प्यार होगा !
पर जो भी होगा..प्यार का सार ही होगा !
इन्तजार होता
जिन्हें..बुलबुला प्यार का !
अब
जाने इसी को..कि आकार क्या है !
उस जानने को जाने..तो निराकार क्या है !
भंवर में हम चढ़े..आकार ही निराकार वह !
निराकार में झांके तो स्वर्गाकार सामने !
फिर क्या था यह मिलना और मिलाना !
जीव की यह रचना रंग प्यार में भीगी !
देखते ही देखते बच्चों की किलकारियां !
कब सुबह होती कब सायं आती !
चलती रहेगी पीढियां हमारी !
प्रेम प्यार के गीत गा के हम बुलाते !
आओ प्रिय अब तुम हम गुनगुनाते |
*
तो कब आओगी अब तुम बतला दो..
कल खुलेगी खिड़कियाँ..देखेंगे नजारा..
जी-मेल हमारा वो घर अब तुम्हारा !

स्नेही - यशवंत

* e-mail: yashwantsingh.shekhawat@gmail.com

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

आओ मीत तेरा इन्जार कर रहा हूँ..

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शिथिलता के बीज से पैदा नहीं तू
फिर क्यूँ खंडरों की नुमाईस में लगी हो
आओ मिल बनाए फिर गीत प्रेम के
हम बनाए दुनिया सबको रिझाएगी
आती आंधियां चुपके से निकल जायेगी
आँचल तुम्हारा मन्दाकिनी का सहारा
मृदुलता हमारी सुविचार देगी 
कुछ प्रिय तुम दोगी 
तो कुछ हम चलेगें
देख सपने अपने
जीवन को राह देगें
चलो प्रिय अपनी साथ तुम मेरे
दुनिया होगें मेले आँगन हमारे
कुछ तुम दिखाना कुछ दिखाई देगें
आगे बढ़कर तो देखो
जीत है हमारी
जहां झांककर देखो
प्रीत वहां हमारी
आओ मिल बनाए आशिया हमारा
जिसमें हो खुशबु हमारे प्रेम प्यार की
रोशन हो उठेगा ज़माना हमारा
अब देर किस लिए है चलना साथ मेरे
सोचती क्या है दुनिया के आडम्बरों से
रिश्ते के वस्त्र त्यागकर निकलो अब साथ
इन्जार कर रहा हूँ इन आईनों में
कौन से झरोके में तेरी आहट होगी
इन्जार इसी का मैं कर रहा हूँ
आओ मीत तेरा
इन्जार कर रहा हूँ..